योगी आदित्यनाथ की सरकार के वो आठ रोचक तथ्य जिनके बारे में शायद ही आप जानते हो

 
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नई दिल्ली। भूदेव भगलिया

यदा यदा हि योगी नाम से योगी आदित्यनाथ Yogi Adityanath की जीवनी लिखने वाले विजय त्रिवेदी के मुताबिक 1972 में गढ़वाल के एक गांव में जन्मे अजय मोहन बिष्ट का शुरुआत से ही राजनीति की ओर रुझान था। जीवनी में वो लिखते हैं कि अजय बिष्ट को कॉलेज के दिनों में फ़ैशनेबल, चमकदार, टाइट कपड़े और आंखों पर काले गॉगल्स पहनने का शौक़ था। 1994 में दीक्षा लेने के बाद वे आदित्यनाथ योगी बन गए।

बचपन में शाखा में जाने वाले बिष्ट, कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ना चाहते थे पर आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे निर्दलीय लड़े, लेकिन हार गए। अजय बिष्ट ने बीएससी की पढ़ाई गढ़वाल के श्रीनगर स्थित हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी से पूरी की है।

शहर के कुछ महीनों बाद जनवरी 1992 में बिष्ट के कमरे में चोरी हो गई जिसमें एमएससी के दा़िखले के लिए ज़रूरी कई कागज़ात भी चले गए। दा़िखले के सिलसिले में मदद मांगने के लिए ही बिष्ट पहली बार महंत अवैद्यनाथ से मिले और दो वर्षों के भीतर ही उन्होंने न सिर्फ़ दीक्षा ली बल्कि उत्तराधिकारी भी बन गए।

दीक्षा लेने के साथ नाम ही नहीं बदला जाता, पिछली दुनिया के साथ संबंध भी तोड़ा जाता है। आगे चलकर साल 2020 में बीमार पड़ने के बाद जब उनके पिता आनंद बिष्ट की मृत्यु हो गई तब मुख्यमंत्री बन चुके आदित्यनाथ ने एक बयान जारी कर कहा कि कोरोना महामारी को पछाड़ने की रणनीति के तहत और लॉकडाउन की सफलता के लिए मैं उनके कर्म कांड में शामिल नहीं हो सकूंगा।

दीक्षा के बाद से ही आदित्यनाथ योगी Yogi Adityanath ने आधिकारिक दस्तावेज़ों में पिता के नाम के कॉलम में आनंद बिष्ट की जगह महंत अवैद्यनाथ का नाम लिखना शुरू कर दिया। महंत अवैद्यनाथ तब राम मंदिर आंदोलन का प्रमुख चेहरा थे. वो गोरखपुर Gorakhapur से चार बार सांसद रह चुके थे और गोरखनाथ मंदिर के महंत थे।

गोरखनाथ मंदिर Gorakhanaath Mandir और सत्ता का रिश्ता और पुराना है। महंत अवैद्यनाथ से पहले महंत दिग्विजय नाथ ने इसे राजनीति का अहम केंद्र बनाया. वो गोरखपुर से सांसद भी चुने गए।

1950 में महासभा के राष्ट्रीय महासचिव बनने पर उन्होंने कहा कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो वो मुसलमानों से 5-10 वर्षों के लिए मताधिकार वापस ले लेंगे ताकि उस समय में वो समुदाय सरकार को आश्वस्त कर सके कि उसके इरादे भारत के हित में हैं।


ऐतिहासिक तौर पर नाथ संप्रदाय में हिंदुओं और मुसलमानों में भेदभाव नहीं किया जाता और मूर्ति पूजा नहीं होती। एकेश्वरवादी नाथ संप्रदाय अद्वैत दर्शन में विश्वास रखता है जिसके मुताबिक़ ईश्वर एक ही है और उसी का अंश सभी जीवों में है, वे आत्मा और परमात्मा को अलग-अलग नहीं मानते। मुगल शासक जहांगीर के दौर में एक कवि की लिखी श्चित्रावलीश् में गोरखपुर का उल्लेख मिलता है। 16वीं सदी की इस रचना में गोरखपुर को योगियों का भला देश बताया गया है।


मौजूदा गोरखनाथ मंदिर Gorakhanaath Mandir के बाहर एक सबद भी अंकित है-हिंदू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत/ जोगी ध्यावे परम पद, जहां देहुरा ना मसीत। इस सबद का अर्थ है कि हिंदू मंदिर का और मुसलमान मस्जिद का ध्यान करते हैं, पर योगी उस परमपद (परमब्रह्म, एकेश्वर) का ध्यान करते हैं, वे मंदिर या मस्जिद में उसे नहीं ढूंढते।

धार्मिक किताबें छापने वाली गोरखपुर स्थित गीता प्रेस पर किताब श्गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ़ हिंदू इंडियाश् में लेखक-पत्रकार अक्षय मुकुल, गोरखनाथ मंदिर के साथ उसके गहरे रिश्ते के बारे में लिखते हैं। गीता प्रेस Geeta presee की प्रकाशित सामग्री में गौ-हत्या, हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाना, हिंदू कोड बिल, संविधान के धर्म-निरपेक्ष होने वगैरह पर हिंदुओं की एक राय बनाने की कोशिश की गई जिसमें राजनीतिक प्रभाव रखने वाले मंदिर के महंतों ने भूमिका अदा की।


नवंबर 2019 में अयोध्या मंदिर-मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपने ट्विटर हैंडल से एक तस्वीर शेयर की थी जिसमें रामशिला के साथ गोरखनाथ मंदिर के पूर्व महंत दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ और परमहंस रामचंद्र दास दिखाई दे रहे थे। तस्वीर के साथ योगी आदित्यनाथ ने लिखा था गोरक्षपीठाधीश्वर युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज, परम पूज्य गुरुदेव गोरक्षपीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ जी महाराज एवं परमहंस रामचंद्र दास जी महाराज को भावपूर्ण श्रद्धांजलि।

अजय बिष्ट के राजनीतिक सफ़र की सही मायने में शुरुआत तब हुई जब 1994 में उन्होंने महंत अवैद्यनाथ से दीक्षा लेकर योगी आदित्यनाथ की पहचान अपनाई। इसके बाद उनका अगला संसदीय चुनाव लड़ना लगभग तय था। पांच साल बाद 26 साल की उम्र में वो गोरखपुर से सांसद चुने गए. हालांकि तब उन्हें सिर्फ़ छह हज़ार वोटों से जीत हासिल हुई थी।

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मनोज सिंह बताते हैं, इस वक्त उन्होंने तय किया कि उन्हें बीजेपी से अलग एक सपोर्ट बेस चाहिए और उन्होंने हिंदू युवा वाहिनी बनाई, जो कहने को एक सांस्कृतिक संगठन था, पर दरअसल उनकी अपनी सेना थी। हिंदू युवा वाहिनी का कथित लक्ष्य था धर्म की रक्षा करना, सांप्रदायिक तनाव में इस संगठन की भूमिका रही है। इसी संगठन की अगुवाई करते हुए योगी आदित्यनाथ साल 2007 में गिरफ़्तार हुए थे।

11 दिन जेल में रहने के बाद वो ज़मानत पर छूट गए. दस साल तक इस केस में किसी सरकार के तहत कोई कार्रवाई नहीं हुई. 2017 में जब आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने तो उनके तहत आनेवाले गृह मंत्रालय ने सीबीसीआईडी को इस केस को चलाने की इजाज़त नहीं दी। साल 2014 में जब आदित्यनाथ ने अपना आखिरी चुनाव लड़ा था, तब चुनाव आयोग में दाखिल ऐफ़िडेविट के मुताबिक़ उनके ख़िलाफ़ कई संगीन धाराओं के तहत मुक़दमे दायर थे।


दिसंबर 2017 में उत्तर प्रदेश सरकार ने क़ानून में एक संशोधन किया जिससे राजनेताओं के खिलाफ श्राजनीति से प्रेरित मामले वापस लिए जा सकें. कौन-से मामले राजनीति से प्रेरित माने जाएंगे ये तय करने का अधिकार सरकार ने अपने पास रख लिया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में वो वाहिनी के लोगों को विधायक का टिकट दिलवाने के लिए अक्सर अड़ जाते और बीजेपी नहीं मानती तो उनके प्रत्याशी के सामने वाहिनी के उम्मीदवार खड़ा करने तक का क़दम उठा लेते थे।


मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद भी वो पार्टी के सामने अपनी बात मनवाने से नहीं चूकते। सबा नक़वी मानती हैं कि इसकी वजह हिंदुत्व की विचारधारा पर फली-फूली उनकी लोकप्रियता और समर्थकों की ताक़त है। ऐसी पार्टी जो मोदी-शाह के पूरे नियंत्रण में है, वहां आदित्यनाथ अपनी बात कह सकते हैं, वो किसी नेता के रहमो-करम पर नहीं हैं।


कई राज्यों के मुख्यमंत्री आसानी से हटाए गए हैं पर उनके साथ पार्टी ऐसा नहीं कर पा रही क्योंकि इतने अहम राज्य में इन्हें हटाकर किसे खड़ा करेंगे? मुख्यमंत्री बनने के साथ ही कई बड़े फ़ैसले लेने से उनकी छवि एक कड़े प्रशासक की बन गई।  सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, उन्हें हार्ड टास्क मास्टर माना जाने लगा, ब्यूरोक्रेसी को समझ में आ गया कि इनके हिसाब से काम करना होगा, वर्ना चलेगा नहीं। फ़ैसले लेना ही नहीं, अगली मीटिंग में उसके फ़ॉलो-अप की जानकारी लेना और काम ना होने पर क़दम उठाना मुख्यमंत्री की कार्यशैली है।


एक नेता के तौर पर नरेंद्र मोदी के सामने आदित्यनाथ का क़द बहुत छोटा है और उन्हें राजनीति में आगे बढ़ने के लिए आम सहमति बनाकर चलने और कॉरपोरेट जगत से मेल-जोल बनाने जैसे गुर भी नहीं आते। राज्य चलाने की ज़िम्मेदारी से पहले से ही वो गोरखनाथ मंदिर के तहत कई स्कूल, अस्पताल और अन्य संस्थाओं का नेतृत्व करते रहे हैं।

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मंदिर का नेतृत्व बहुत सामंतवादी तरीके से किया गया है, सारा नियंत्रण योगी आदित्यनाथ के हाथ में रहा है और वो सरकार भी उसी तरीके से चला रहे हैं. विधायक तो दूर, मंत्री तक अपनी बात नहीं कह पाते।

विजय त्रिवेदी के मुताबिक़ योगी आदित्यनाथ ने प्रधानमंत्री के काम करने के तरीके से बहुत कुछ सीखने की कोशिश की है, नीतियों का ख़ूब प्रचार करना, अकेले सरकार चलाना, मीडिया पर नियंत्रण रखना वगैरह. लेकिन वो हिंदुत्व के साथ-साथ विकास के एजेंडे पर काम नहीं कर पाए हैं। ये तब, जब उन्होंने मीडिया का एक बड़ा तंत्र खड़ा किया है। लखनऊ और गोरखपुर में दो अलग मीडिया टीमें काम करती हैं जिनमें सरकारी के साथ-साथ बाहर की एजेंसियों को भी काम पर लगाया गया है। पहले से कहीं ज़्यादा तादाद में बड़े विज्ञापन छपने लगे हैं, चौनलों पर उपलब्धियों की डॉक्यूमेंटरी प्रसारित होती हैं।

इनमें यूनीफ़ॉर्म सिविल कोड, आधिकारिक तौर पर देश का नाम श्इंडियाश् की जगह श्भारतश् करने, गौ हत्या पर पाबंदी, धर्म परिवर्तन के ख़िलाफ़ क़ानून और इलाहाबाद हाई कोर्ट की गोरखपुर बेंच की स्थापना की मांग की गई थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद वो राज्य में गौ हत्या के ख़िलाफ़ क़ानून को और सख़्त बना चुके हैं और धर्म परिवर्तन पर पाबंदी के लिए नया क़ानून ला चुके हैं।

इस कार्यकाल में ये तय हो गया है कि एक महंत भी शासन कर सकता है और अपने कट्टर विचारों को विधानसभा में और अपनी नीतियों में आवाज़ दे सकता है। उत्तर प्रदेश में पुलिस हमेशा से ताक़तवर रही है पर इस कार्यकाल में उसे और छूट मिली है। सरकार अपने विज्ञापनों में एनकाउंटर करने को उपलब्धि के तौर पर गिनाती है और मुख्यमंत्री की कड़े प्रशासक होने की छवि को आगे ले जाती है।

योगी की नीतियों से एक गुट में नाराज़गी बढ़ी है तो दूसरी में लोकप्रियता। लेकिन लोकतंत्र में तो चुनावी नतीजे ही असली मानक हैं, 30 प्रतिशत की पसंद 70 प्रतिशत को माननी पड़ती है, अगर हमें वो पसंद नहीं तो अपना सिस्टम बदलना होगा।

राज्य में सरकारी संदेश का बहुत प्रभावी तरीके से प्रसार हो रहा है। सबा नक़वी के मुताबिक़ उससे इतर लिखने की कोशिश करने वाले ष्स्थानीय पत्रकारों पर कड़े प्रावधानों के तहत मुक़दमे दायर करना और उन्हें जेल में डालना आम हो गया है।


सिद्धार्थ कलहंस के मुताबिक़ अब राज्य में विरोध पहले जैसे सार्वजनिक तरीक़े से नहीं दिखता जैसे हुआ करता था, जो ध्रुवीकरण की राजनीति से इत्तफाक़ नहीं रखते, वो चुप ही रहते हैं।

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